गुरुवार, 31 मार्च 2016

कवि जयचन्द प्रजापति की विरह कविता

देखो मुझे
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देखो मैं कैसे जी रहा हूँ
रात दिन बहे ये नैन
कहे किससे मन की व्यथा
जब से गई हो
न खाने पीने की सुधि
नींद नहीं आती है
करवटें कब तक लूँगा
पथराई ये आँखें
विवश व लाचारी की पीड़ा
दाबे खड़ा हूँ
रह रह अश्रु बहे
तन मन भीग गया है
बरसों से राह निहार रहा हूँ
कब आयेगी अलबेली रात
सजा हुआ यह उपवन
कब होगा,प्रिये!
दीन हीन में पड़ा हूँ
अब धैर्य नहीं है
सहन नहीं होता यह विरह वेदना
लगता है सावन आने तक
सूख कर कांटा हो जाऊँगा
तुझसे मिल न पाऊँगा

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