शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

कवि जयचन्द प्रजापति 'कक्कूजी' की पीड़ा

जब मै कविता लिखता हूँ तो मेरी कविता में जीवन की सच्ची
सच्चाई होती है.उड़ेल देना चाहता हूँ कविता का मर्म और उसी
में सच्चा भाव भरने की कोशिश करता हूँ.समाज की स्धिति को
समूचा भाव बनाकर ही रचना की प्रस्तुति करता हूँ.मेरी एक कविता
देखिये..

बना है वह
झूठे का शहशांह
खेती करता है
तीन पॉच का
बना है नंबरदार
गरीबों को नोंच रहा है
उसकी मटियामेट कर रहा है

आज समाज में झूठे का दिखावा है.समाज के लोग बिगड़ गये है
मानवता डर रही है.काँप रहा है गरीब बेचारा .हाय हाय मची है
लेकिन गरीब का निवाला छिनने में उसको बड़ा मजा मिलता है .
वह अपने कृत्यों को सही ठहरा रहा है.

रो रहा है सच
आज उसका मन
दुःखी भाव बना है
गिड़गिड़ा रहा है
दुबका है सच
तन्हा है
बीच बाजार में

समाज में सच्चाई का दफन हो गया है.सच ठिकाना ढूँ ढ रहा है जीने का.
पगलाया है.आज ऐसी भयावह स्थिति है कि कोई किसी की बात सुन नहीं
रहा है.मानवता सिसक रही है.आसूँ बहा रही है.कैसा यह समय आया है.
मेरा मन कभी कभी बहुत व्यथित हो जाता है कि सच्ची सच्चाई खरीदने
पर भी नहीं मिलेगी.

दो पैसा कमा के
बन गया ठल्लू सेठ
मचल रही है जवानी
असहायों को पीटने के लिये
कैसा दुर्दिन आया है

कुछ लोग पैसा पाते ही सर्वश्रेष्ठ स्वयं को समझने लगे है.वे महानता की
श्रेणी में तुलना करने में हिचक नहीं रहें हैं.

सीधा सादा जीवन काटना मुश्किल हो गया है.सीधे पेड़ को लोग काटने में
निःसंकोच हो रहे हैं......


जयचन्द प्रजापति' कक्कूजी'
जैतापुर, हंडिया, इलाहाबाद
मो.07880438226

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